Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च |
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी || 31||

यया जिसके द्वारा; धर्मम्-धर्म को; अधर्मम्-अधर्म को; च और; कार्यम्-उचित आचरण; च-और; अकार्यम्-अनुचित आचरण; एव–निश्चय ही; च-और; अयथा-वत्-अनुपयुक्त; प्रजानाति-भेद करना; बुद्धिः-बुद्धि; सा-वह; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; राजसी-रजोगुण।

Translation

BG 18.31: हे पार्थ! जो धर्म और अधर्म तथा उचित और अनुचित आचरण के बीच भेद करने में भ्रमित रहती है। ऐसी बुद्धि राजसिक कहलाती है।

Commentary

आसक्ति के कारण राजसिक बुद्धि मिश्रित हो जाती है। कई बार यह स्पष्ट देखती है लेकिन निजी स्वार्थ आड़े आने पर यह दूषित और भ्रमित हो जाती है। उदाहरणार्थ कुछ लोग अपने व्यवसाय में अति प्रवीण होते हैं किन्तु पारिवारिक संबंधों में उनका आचरण बचकाना होता है। वे अपनी जीविका के मोर्चे पर तो सफल होते हैं घरेलू मोर्चे पर असफल रहते हैं क्योंकि उनका मोह उन्हें उचित निर्णय लेने और सदाचरण का पालन करने से रोकता है। राग और द्वेष, पसंद और नापसंद से ग्रसित राजसी बुद्धि उचित निर्णय लेने में असमर्थ होती है। यह महत्त्वपूर्ण और तुच्छ, स्थायी और अस्थायी तथा मूल्यवान और निरर्थक के बीच उलझी रहती है।

Swami Mukundananda

18. मोक्ष संन्यास योग

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